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दरकता शहरी ढांचा

Jagran Juggernaut
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पिछले सप्ताह सिंगापुर में आयोजित एक कार्यक्रम में देश की राजधानी दिल्ली को विश्व के चौथे नंबर के शहर का दर्जा दिया गया। इसका आधार यह बताया गया कि दिल्ली में रहन-सहन का वातावरण बेहतर बनाने की दिशा में राज्य सरकार ने अहम योगदान दिया है। दिल्ली सरकार की भागीदारी योजना को जन समस्याओं के समाधान में सहायक माना गया और साथ ही यह भी रेखांकित किया गया कि पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में हरियाली बढ़ी है तथा प्रदूषण कम हुआ है। 32 देशों के 72 शहरों में से दिल्ली को चौथा स्थान मिलना एक उपलब्धि है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है और होनी भी चाहिए। वैसे दिल्ली के जो हालात हैं उनमें यहां के लोगों को खट्टे-मीठे, दोनों तरह के अनुभव होते हैं। देश की राजधानी होने के कारण यहां की शान-शौकत बढ़ती जा रही है। विभिन्न इलाकों में आधारभूत ढांचे में जो सुधार हो रहा है उससे लोगों को दिल्ली पर गर्व करने का अवसर मिलता है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि बढ़ती आबादी के कारण आधारभूत ढांचा अपर्याप्त साबित होता जाता है। इस पर आश्चर्य नहीं कि दिल्ली को चौथे नंबर का शहर होने का खिताब मिलने के अगले ही दिन एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि ट्रैफिक के लिहाज से दिल्ली खराब शहरों में से एक है। इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष से शायद ही कोई असहमत हो, क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर चलना वाकई मुश्किल होता जा रहा है। दिन हो या रात, दिल्ली की ज्यादातर सड़कें जाम से त्रस्त रहती हैं। एक दशक पूर्व दिल्ली की सड़कें एक खुलेपन का अहसास कराती थीं। अब तो उनमें दम घुटता है।

इन दिनों दिल्ली में राष्ट्रकुल खेलों की तैयारियां जोरों पर हैं। विभिन्न एजेंसियां अपना अधूरा काम पूरा करने में जुटी हुई हैं। समय कम है, फिर भी दिल्ली की तमाम सड़कों और फुटपाथ, जिनमें से कुछ ठीक-ठाक है, को तोड़कर दोबारा बनाया जा रहा है। जगह-जगह फ्लाईओवर बन रहे हैं तो दूसरी ओर अनेक स्टेडियम भी पूरे होने के इंतजार में हैं। इन दिनों दिल्ली में चारों ओर मलबा ही अधिक नजर आता है, जिसके कारण ट्रैफिक व्यवस्था और अधिक चरमरा गई है। उम्मीद है कि अगले 90 दिनों में सारे निर्माण कार्य पूरे हो जाएंगे, लेकिन कोई भी इसकी गारंटी नहीं ले सकता कि तब दिल्ली की सड़कों पर चलना आसान हो जाएगा। कोई यह दावा करने की स्थिति में भी नहीं कि दिल्ली का यातायात सुगम और सहज होने वाला है, क्योंकि दिल्ली में रोजी-रोटी की तलाश में आने वाले लोगों का सिलसिला कायम है। इसके चलते दिल्ली के आधारभूत ढांचे पर दबाव बढ़ता जा रहा है। जहां सड़कें चौड़ी होती हैं अथवा फ्लाईओवर बनते हैं वहां कुछ दिनों की राहत के बाद फिर पहले जैसी स्थिति कायम हो जाती है। दिल्लीवासी यह सोचने के लिए विवश हैं कि इस शहर में ऐसी योजनाएं कब बनेंगी जो बढ़ती आबादी का बोझ सहन कर सकें? आबादी के बढ़ते दबाव के बावजूद दिल्ली में ऐसी योजनाएं नजर नहीं आतीं जो आने वाले दशकों में लोगों को राहत दे सकें। कुछ दूरगामी योजनाएं अभी भी लंबित हैं, जैसे कि कोंडली-पलवल-मानेसर एक्सप्रेस वे। इस योजना को एक दशक पूर्व पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन वह अभी तक अधूरी है। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य योजनाओं की भी है।

दिल्ली के विकास को इसलिए अहमियत दी जानी चाहिए, क्योंकि राजधानी होने के नाते इस शहर के विकास से देश की प्रतिष्ठा जुड़ी है, लेकिन यहां निर्माण कार्य जिस ढंग से हो रहे हैं उससे तो यही लगता है कि किसी को देश की प्रतिष्ठा की परवाह नहीं। दिल्ली आने वाले पर्यटक और मेहमान शहर की स्थितियां देख कर यह जरूर सोचते होंगे कि आखिर भारत किस आधार पर महाशक्ति बनने का दावा कर रहा है? शुक्र है कि वर्षाे बाद दिल्ली में एक विश्वस्तरीय हवाई अड्डा बनकर तैयार हो गया, लेकिन तथ्य यह है कि इसे एक दशक पूर्व ही तैयार हो जाना चाहिए था। ध्यान रहे कि विकसित देशों की पहचान उनके शहरों और विशेष रूप से उनके आधारभूत ढांचे से होती है। यदि चीन को देखें तो उसने अपने विकास के मानक इसी तरह स्थापित किए हैं। उसके अनेक शहर आधारभूत ढांचे की दृष्टि से विश्व के चुनिंदा शहरों जैसे हैं।

हमारे नीति निर्माता इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि अन्य विकासशील देशों की तरह भारत के शहरों में भी ग्रामीण क्षेत्र से आने वाली आबादी का प्रवाह बढ़ेगा। समस्या यह है कि दिल्ली की तरह अन्य महानगरों-मुंबई, चेन्नई, कोलकाता का आधारभूत ढांचा इस तरह विकसित नहीं हो रहा कि वे आबादी के बढ़ते बोझ को सहन कर सकें। ऐसी ही स्थिति दूसरी श्रेणी के शहरों की भी है, जिनमें से ज्यादातर राज्यों की राजधानी हैं। लगभग सभी प्रमुख शहरों में नियोजित विकास का अभाव साफ नजर आता है। यह ठीक है कि जब इन शहरों को बसाया गया तब किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि वे आबादी के इतने बड़े बोझ का सामना करेंगे, लेकिन अब तो उनका विकास इस तरह किया ही जा सकता है कि वे रहने लायक बने रहें। अभी तो उनका बेतरतीब ढंग से विकास हो रहा है। लगभग सभी प्रमुख शहरों में अनधिकृत कालोनियों और झुग्गी बस्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसका एक कारण यहां रहने वाले लोगों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखा जाना है। हमारे राजनेता इन कालोनियों और बस्तियों को संरक्षण देते हैं। बड़े शहरों के नियोजित विकास में स्थानीय नेताओं के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल का अभाव भी बाधक बन रहा है। जहां समन्वय की आवश्यकता होती है वहां मतभेद नजर आते हैं। इन स्थितियों में तो ऐसा लगता है कि देश के प्रमुख शहरों के विकास के लिए विशेष नियम-कानून बनाने की आवश्यकता है-ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में मेट्रो के संदर्भ में बनाए गए थे। शहरों के बेतरतीब विकास के चलते आम आदमी को जैसी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है उनसे आमतौर पर राजनेता बचे रहते हैं। वे अपनी सुख सुविधा के इंतजाम इस तरह करते हैं कि भले ही आम लोगों को परेशानी हो, लेकिन उनके आराम में खलल न पड़े। सड़कों पर चलते समय उनके पास लाल बत्ताी होती है और रहने के लिए सरकारी आवास तथा सुरक्षा के लिए हाथ बांधे खड़ी रहने वाली पुलिस। चूंकि देश के शीर्षस्थ नेता उन असुविधाओं से दो-चार नहीं हो रहे हैं जो आम जनता शहरों में भुगतती है इसलिए वे समस्याओं का समाधान करने के लिए तत्पर नहीं।

यदि भारत को एक विकसित राष्ट्र बनना है तो उसके शहरों के ढाचे को सुनियोजित तरीके से विकसित करना अति आवश्यक है। इस कार्य में और विलंब का मतलब है समस्याओं को बढ़ाना। हमारे शहर आबादी के बोझ तले दब चुके हैं। अगर राजनेताओं ने दूरदर्शिता दिखाकर शहरों के विकास को प्राथमिकता नहीं दी तो इसके दुष्परिणाम देश की अर्थव्यवस्था को भी भोगने पड़ेंगे, क्योंकि बेतरतीब ढग से बसे और समस्याग्रस्त शहरो में लोगों का समय बर्बाद होता है और इसके कारण वे जिस मानसिक तनाव से गुजरते है उससे उनकी क्षमता पर विपरीत असर पड़ता है।


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