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काम न करने वाली सरकार

Jagran Juggernaut
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संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूरा करने के उपलक्ष्य में जो रिपोर्ट कार्ड जारी किया उसमें भले ही तमाम उपलब्धियां दर्ज की गई हों, लेकिन वे कोई प्रभाव छोड़ने में सक्षम नहीं रहीं। केंद्र सरकार अपनी सफलता के ढोल जोर-शोर से पीट सकती है, लेकिन सच यह है कि उसके खाते में उपलब्धियों के स्थान पर नाकामियां ही नजर आती हैं। पिछले वर्ष आश्चर्यजनक ढंग से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से सौ दिन के एक एजेंडे को सामने लाकर यह बताने की कोशिश की गई थी कि अपने इस कार्यकाल में केंद्र सरकार कहीं अधिक तत्परता के साथ काम करेगी और ऐसा करके वह अपने पिछले कार्यकाल के उन तमाम अधूरे कार्यो को आगे बढ़ाएगी जो वाम दलों के दबाव के कारण अधर में लटके रहे। दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं हो सका और सौ दिन के एजेंडे को पूरा करने के नाम पर महज कागजी खानापूरी की गई।

संप्रग सरकार अपने पिछले कार्यकाल में विनिवेश, श्रम एवं पेंशन सुधारों के साथ-साथ ऊर्जा क्षेत्र में कुछ भी नहीं कर सकी थी, क्योंकि वाम दल सरकार की नीतियों से सहमत नहीं थे। यही नहीं वह न्यायिक, प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की दिशा में भी आगे नहीं बढ़ सकी थी। यह निराशाजनक है कि बीते एक वर्ष में भी इन क्षेत्रों में ऐसा कुछ नहीं हो सका जिसे उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जा सके। महिलाओं की स्थिति में सुधार के नाम पर सरकार ने जिस महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में कलह के बीच पारित कराया उसे वह लोकसभा में लाने का साहस नहीं जुटा सकी। जिस तरह यह विधेयक अधर में है उसी तरह न्यायिक सुधारों संबंधी विधेयक भी अटका हुआ है। यह ठीक है कि गठबंधन सरकार चला रहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यह मजबूरी है कि वह घटक दलों के ऐसे मंत्रियों को भी सहन करें जो अपना काम सही तरीके से नहीं कर पा रहे, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि कांग्रेस के भी ऐसे मंत्रियों को बनाए रखा जाए जो प्रधानमंत्री की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे।

समस्या केवल यह नहीं है कि सड़क, बिजली, बंदरगाहों समेत बुनियादी ढांचे के अन्य क्षेत्रों में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हो रहा, बल्कि यह भी है कि केंद्र सरकार के ज्यादातर आर्थिक मंत्रालय अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पा रहे। कांग्रेस के जो अनेक मंत्री अपनी बातों से खुद को सजग और सक्रिय साबित कर रहे हैं उनका पिछले एक वर्ष का कामकाज भी बहुत उत्साहित करने वाला नहीं। उदाहरणस्वरूप मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल प्रारंभ में तेजी से आगे बढ़ते दिख रहे थे, लेकिन पार्टी और सरकार के अंदर से विरोध उभरने के बाद वह ठिठके से दिखाई देते हैं। अब यह किसी से छिपा नहीं कि अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर संप्रग में ही नहीं, बल्कि कांग्रेस में भी अंतरविरोध व्याप्त है। यह अंतरविरोध केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठकों में भी उभर चुका है। बात चाहे नक्सलवाद की हो अथवा शैक्षिक एवं सामाजिक सुधारों की या फिर पर्यावरण और विदेश नीति संबंधी मुद्दों की-हर मामले में पार्टी के नेता अलग-अलग सुर में बात कर रहे हैं। इसके सबसे बड़े शिकार केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम हैं। उन्हें संप्रग तो क्या, कांग्रेस से भी समर्थन नहीं मिल पा रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की भी है। वह रह-रहकर विवादों से घिरते रहते हैं। सबसे निराशाजनक यह है कि आम जनता को इसका पता नहीं चल पा रहा कि पाकिस्तान के संदर्भ में किस नीति पर चला जा रहा है? कभी यह कहा जाता है कि मुंबई हमलों के षड्यंत्रकारियों को दंडित किए बगैर पाकिस्तान से बातचीत नहीं होगी और कभी इस पड़ोसी देश से वार्ता की आवश्यकता जताई जाती है। यही नहीं, कभी सीमित स्तर की वार्ता को आवश्यक बताया जाता है तो कभी समग्र वार्ता के संकेत दिए जाते हैं। इस सबसे आम जनमानस इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि सरकार अंतरराष्ट्रीय दबाव में है। यह संभवत: पहली बार है जब सरकार की विदेश नीति पर सत्तापक्ष और विपक्ष में आम राय कायम नहीं हो पा रही है।

संप्रग सरकार ने अपने एक वर्ष के कार्यकाल का जो रिपोर्ट कार्ड पेश किया उसके पीछे उसकी मंशा चाहे जो रही हो, यह आश्चर्यजनक है कि अपनी उपलब्धियां गिनाते समय उसने अपनी नाकामियों की ओर संकेत तक नहीं किया। स्पष्ट है कि सरकार अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रही है। जब देश की जनता महंगाई से त्रस्त हो और आंतरिक सुरक्षा तार-तार हो रही हो तब सरकार की ओर से अपनी प्रशंसा के पुल बांधना शर्मनाक है-इसलिए और अधिक, क्योंकि यह उसका लगातार दूसरा कार्यकाल है। इस दूसरे कार्यकाल में संप्रग सरकार उन अनेक नई समस्याओं से ग्रस्त नजर आती है जो पिछले कार्यकाल में नहीं दिख रहीं थीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकार का खुद का प्रबंधन ढीला है। कांग्रेस जैसी अनुभवी पार्टी सहयोगी दलों के अनुचित दबाव का सामना करने के लिए विवश है। वह गठबंधन राजनीति के दांवपेंच में फंसकर रह गई है। बावजूद इसके उसके और सरकार की ओर से गठबंधन राजनीति की कमियों को दूर करने के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे। यह वह स्थिति है जो उसके समक्ष और अधिक समस्याएं पैदा करेगी।

यदि कांग्रेस किसी बात से संतुष्ट हो सकती है तो सिर्फ इससे कि राहुल गांधी अपने तरीके से संगठन को मजबूत करने में जुटे हुए हैं। जब कांग्रेस के ज्यादातर नेता अपने ड्राइंग रूम से राजनीति संचालित करते दिख रहे हैं तब राहुल गांधी आम आदमी के बीच सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता कांग्रेस के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करती है, लेकिन खतरा यह है कि कहीं सरकार की नाकामी उनके प्रयासों पर पानी न फेर दे। यदि संप्रग सरकार इसी तरह काम करती रही तो वह राहुल गांधी के पार्टी को मजबूत करने के अभियान में बाधाएं पैदा करने का ही काम करेगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1991 में वित्त मंत्री के रूप में देश को आशा की किरण दिखाई थी। प्रधानमंत्री के रूप में उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह गठबंधन राजनीति के दबाव से मुक्त होकर सुशासन की दिशा में आगे बढे़ंगे। नि:संदेह वह ऐसा तभी कर पाएंगे जब रुके पड़े सुधारों को गति देंगे।

वर्तमान में केवल इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आने वाले समय में हमारी विकास दर आठ-नौ प्रतिशत रहने वाली है, क्योंकि प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत का नंबर पहले सौ देशों में भी नहीं है। मौजूदा स्थितियों में आठ प्रतिशत के करीब विकास दर कोई बड़ी बात नहीं है। यह भी ध्यान रहे कि इस आकर्षक मानी जाने वाली विकास दर में भारत के निजी क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसने उपयुक्त आधारभूत ढाचे के अभाव में भी अप्रत्याशित रूप से बेहतर काम किया है। यदि सुधारों को गति नहीं दी गई तो दूसरी पारी में संप्रग सरकार अपने सबसे बड़े घटक काग्रेस पर भी भारी पड़ सकती है।

Source: Jagran News


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