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एक फांसी का सवाल

Jagran Juggernaut
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जैसी कि पूरे देश को उम्मीद थी वैसा ही हुआ और मुंबई हमले के दौरान रंगे हाथों पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब को फांसी की सजा सुना दी गई। लगभग पांच सौ दिन तक चले इस मामले में जज ने हर पहलू को बारीकी से समझा और कसाब को पांच आरोपों में फांसी तथा पांच में उम्र कैद की सजा सुनाई। कसाब को फांसी की सजा देने के फैसले का देश के विभिन्न हिस्सों और खासकर मुंबई में स्वागत किया गया। लोगों ने आतिशबाजी छोड़कर अपनी भावनाओं का इजहार किया।

कसाब के वकील ने उसे कठोर सजा न देने के लिए उसके मानसिक रूप से असंतुलित होने, लश्करे तैयबा के बहकावे में आने तथा सुधरने का एक और मौका देने की जो दलीलें दीं उन्हें अदालत ने यह कहकर खारिज किया कि एक ऐसे शख्स के प्रति मानवता नहीं दिखाई जा सकती जिसने निर्मम तरीके से जानबूझकर हत्याएं कीं। उन्होंने यह भी कहा कि उसके सुधरने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं और उसके प्रति नरमी बरतने से न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कम होगा। मुंबई हमले के दौरान कसाब न केवल रंगे हाथ पकड़ा गया था, बल्कि राइफल लिए हुए उसके फोटो भी खींचे गए थे।

इसके बावजूद उसके वकील केपी पवार ने उसके बचाव में यथासंभव दलीलें दीं। कुछ इसी तरह की दलीलें कसाब के पहले वकील आजमी ने भी दी थीं। उन्होंने तो उसे नाबालिग सिद्ध करने का भी प्रयास किया था।

एक समय खुद कसाब ने अपने ऊपर लगे सारे आरोपों को स्वीकार करते हुए खुद के लिए मौत की सजा मांगी थी। इसके बावजूद न्यायिक प्रक्रिया अपनी तरह से जारी रही। यह इसलिए आवश्यक था ताकि पाकिस्तान और साथ ही शेष विश्व को यह बताया जा सके कि कसाब के मामले की सुनवाई विधि सम्मत तरीके से पूरी हुई। देश के चुनिंदा विधि विशेषज्ञों का भी यही मानना है कि कसाब का ट्रायल सही तरीके से हुआ। वे उसकी फांसी की सजा को भी उपयुक्त मान रहे हैं।

भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने के मामले में कसाब पहला ऐसा आतंकी नहीं जिसे मौत की सजा दी गई है। इसके पहले संसद पर हमले के आरोपी अफजल को भी मौत की सजा सुनाई जा चुकी है। 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे दी गई फांसी की सजा की पुष्टि कर दी थी। दुर्भाग्य से उसे फांसी देने के पहले राजनीति शुरू हो गई। कश्मीर के कुछ नेताओं ने उसे फांसी देने का इस आधार पर विरोध किया कि इससे घाटी के लोगों के बीच सही संदेश नहीं जाएगा। उनका तर्क था कि यदि अफजल को फांसी दी गई तो कश्मीर के अलगाववादी उसे भारत के खिलाफ युद्ध में शहीद का दर्जा दे देंगे, जबकि वह एक अपराधी है। हालांकि ये तर्क देने वाले शांत हो गए हैं, लेकिन अफजल की दया याचिका अभी भी सरकारी फाइलों में अटकी है। माना जा रहा है कि उसकी अपील अभी राष्ट्रपति तक भी नहीं पहुंची है। कसाब के फैसले के बाद अफजल का मामला फिर चर्चा में है।

यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान से आए दिन आतंकी घुसपैठ करते हैं और न जाने कितने आतंकी सुरक्षा बलों की गोलियों को शिकार बनते हैं। यह कसाब की किस्मत ही रही कि वह मुंबई में लाठीधारी पुलिसकर्मियों के हत्थे चढ़ गया और उसका वह हश्र नहीं हुआ जैसा उसके नौ साथियों का हुआ। उसके जीवित पकड़े जाने का एक परिणाम यह हुआ कि भारत यह स्थापित करने में सफल रहा कि मुंबई हमले में लश्करे तैयबा का हाथ है। कसाब ने खुद अपने इकबालिया बयान में यह माना था कि लश्कर के लोगों ने उसे प्रशिक्षण दिया और फिर मुंबई पर हमला करने के लिए रवाना किया। कसाब की तरह अफजल भी एक आतंकी संगठन जेकेएलएफ का सदस्य है और संसद पर हमले की साजिश भी पाकिस्तान में ही रची गई थी। कसाब और अफजल पर यह आरोप भी साझा है कि दोनों ने भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का काम किया। दोनों में अंतर है तो केवल राष्ट्रीयता का। कसाब फरीदकोट का रहने वाला है तो अफजल कश्मीर का। यदि कसाब को फांसी की सजा देने के फैसले का चौतरफा स्वागत किया जा रहा है तो अफजल को फांसी देने में असमंजस क्यों? स्पष्ट है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से अफजल को जिंदा रखा जा रहा है। ऐसा करके देश की जनता को कोई सही संदेश नहीं दिया जा रहा।

यह समय ही बताएगा कि कसाब विशेष अदालत को चुनौती देता है या नहीं और ऊंची अदालतों में फैसला अपरिवर्तित रहने पर दया याचिका दाखिल करता है या नहीं, लेकिन यदि उसे फांसी देने की नौबत आई तो जल्लाद की कमी आड़े आ सकती है। देश में करीब पचास लोग ऐसे हैं जिन्हें फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है। इनमें से करीब तीस लोगों की दया याचिका पर निर्णय होना शेष है। यह आश्चर्यजनक है कि विभिन्न दुर्लभ मामलों में फांसी की सजा तो दी जा रही है, लेकिन यह सजा देने की व्यवस्था लगभग दम तोड़ चुकी है।

आमतौर पर फांसी की सजा विशेष परिस्थितियों में तब दी जाती है जब अदालत इस नतीजे पर पहुंचती है कि मानवता का हरण करने और राक्षसी प्रवृत्ति का परिचय देने वाले किसी अपराधी का जीवित रहना सभ्य समाज के लिए खतरा बन सकता है। अब यदि ऐसे व्यक्तियों की फांसी की सजा पर अमल नहीं होगा तो फिर बर्बर प्रवृत्ति वाले लोगों और खासकर आतंकियों तक कोई कठोर संदेश कैसे जाएगा? अगर फांसी देने के मामले में जल्लादों की कमी आड़े आ रही है तो फिर या तो यह कमी दूर की जानी चाहिए या फिर मौत की सजा देने के अन्य उपायों पर विचार होना चाहिए। कई देशों में इसके लिए वैकल्पिक उपाय अपनाए जा रहे हैं, जैसे कि बिजली का करंट देना या फिर गोली मारना।

कसाब को सजा सुनाने वाले जज एमएल तहलियानी ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि उसकी फांसी में विलंब कंधार जैसी घटना को जन्म दे सकता है। भारत इसे विस्मृत नहीं कर सकता कि भारतीय विमान का अपहरण कर उसे कंधार ले जाने वाले आतंकियों की मांगों के समक्ष किस तरह झुकना पड़ा था! भारत को अपने लोगों को बचाने के लिए कई खूंखार आतंकियों को छोड़ना पड़ा था। कसाब के साथी आतंकी उसे छुड़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। कसाब की सुरक्षा में करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं। एक आतंकी की सुरक्षा पर धन खर्च करने का कोई मतलब नहीं। कहीं ऐसा न हो कि कसाब को फांसी न देना या उसकी फांसी में विलंब करना भारत को भारी पड़ जाए।


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