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अनीति से भरी राजनीति

Jagran Juggernaut
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संप्रग सरकार ने महंगाई के खिलाफ विपक्ष की ओर से लाए गए कटौती प्रस्तावों पर जिस तरह जीत हासिल की उसके लिए उसकी राजनीतिक बाजीगरी की दाद देनी होगी। कटौती प्रस्ताव गिर जाने से यह साफ हो गया कि कांग्रेस के राजनीतिक प्रबंधक विपक्ष की हर नस से भलीभांति परिचित हैं और उसे दबाने में भी माहिर हैं। यह मानने के अच्छे भले कारण हैं कि वे सपा, बसपा, राजद और यहां तक की राजग के घटक झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं को यह समझाने में सफल रहे कि कटौती प्रस्ताव का विरोध करने की स्थिति में उनके खिलाफ चल रहे मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो नरम रवैया अपनाएगा। इस निष्कर्ष का प्रमुख कारण कटौती प्रस्ताव पर मतदान के समय समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल द्वारा सदन का बहिष्कार करना रहा। ध्यान रहे कि ये दोनों दल महंगाई के खिलाफ लाए जा रहे कटौती प्रस्ताव के समर्थन में न केवल बढ़-चढ़कर बातें कर रहे थे, बल्कि वाम दलों के साथ मिलकर भारत बंद के आयोजन में भी शामिल थे। सपा और राजद ने महंगाई के खिलाफ संसद के बाहर जिस तरह शोरशराबा किया और संसद में एक तरह से सरकार का बचाव किया उसके बाद उनकी विश्वसनीयता को करारी चोट पहुंची है। इन दोनों दलों ने कटौती प्रस्ताव का समर्थन इस आधार पर नहीं किया, क्योंकि भाजपा भी उसे समर्थन दे रही थी। यह एक कुतर्क है, क्योंकि महंगाई का कथित सांप्रदायिक राजनीति से कोई लेना-देना नहीं और न हो सकता है।


महंगाई के खिलाफ आए कटौती प्रस्तावों का जो हश्र हुआ उससे भारतीय राजनीति के गिरते स्तर पर मुहर ही लगी है। सपा और राजद की तरह बसपा ने भी अवसरवादी राजनीति का परिचय दिया। कटौती प्रस्ताव के पहले बसपा महंगाई के लिए केंद्र सरकार को न केवल जिम्मेदार बताती थी, बल्कि केंद्रीय मंत्रियों का त्यागपत्र भी चाहती थी, लेकिन उसने केंद्र सरकार के समर्थन का निर्णय लिया और यह खोखला तर्क दिया कि ऐसा न करने से कथित सांप्रदायिक दलों को लाभ मिलेगा। असलियत यह है कि इसके पीछे सीबीआई की भूमिका रही। कटौती प्रस्ताव के पहले सीबीआई ने यह जो दलील दी कि वह मायावती के विरुद्ध आय से अधिक मामले पर नए सिरे से विचार करने के लिए तैयार है उससे यह साफ हो गया कि बसपा महंगाई पर केंद्र सरकार के पाले में क्यों खड़ी हुई? महंगाई के सवाल पर मायावती, मुलायम सिंह और लालू यादव के राजनीतिक फैसले यह बताते हैं कि केंद्र सरकार इन नेताओं के खिलाफ चल रहे मामलों को या तो बेवजह लंबा खींच रही है या फिर सीबीआई को अपना काम सही तरीके से नहीं करने दे रही। अब तो शायद उसकी दिलचस्पी इसमें अधिक है कि सीबीआई के जरिये इन नेताओं की चाभी उसके हाथ में रहे। जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि केंद्र सरकार सीबीआई के जरिये अपने राजनीतिक हित साध रही है। यह संभव है कि इसे साबित करना मुश्किल हो, लेकिन सीबीआई आए दिन जिस तरह केंद्र सरकार के इशारों पर नाचती दिख रही है उससे उसकी साख पर बट्टा ही लग रहा है। अब इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि यह जांच एजेंसी केंद्र सरकार की कठपुतली मात्र है और उसकी स्वायत्तता नितांत खोखली और दिखावटी है।


भले ही केंद्र सरकार महंगाई के खिलाफ लाए गए कटौती प्रस्ताव से पार पाने में सफल रही हो, लेकिन यह बिल्कुल साफ है कि वह आवश्यक वस्तुओं की मूल्य वृद्धि पर लगाम लगाने में असफल है। पिछले डेढ़ वर्षाें से आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं और केंद्र सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही। बढ़ती महंगाई और विशेष रूप से खाद्यान्न के महंगे होते जाने से आम आदमी की कमर टूट रही है। रही सही कसर अन्य आवश्यक वस्तुओं और विशेष रूप से पेट्रोलियम पदार्थाें के दामों में वृद्धि ने पूरी कर दी है। समस्या यह है कि यह जानना तक कठिन हो रहा है कि महंगाई किन कारणों से बढ़ रही हैं, क्योंकि जमाखोरी, कालाबाजारी से लेकर कम उत्पादन और बिचौलियों की भूमिका तक अलग-अलग कारण गिनाए जा रहे हैं। जब भी केंद्र सरकार महंगाई के सवाल पर घिरती है तब उसकी ओर से कोई न कोई नया कारण सामने रख दिया जाता है। महंगाई बढ़ने के चाहे जो कारण हों, यह साफ है कि कुछ लोग जमकर मुनाफा वसूल रहे हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ कहीं कोई कारगर कार्रवाई होती नजर नहीं आती। इन परिस्थितियों में उन राजनीतिक दलों को कठघरे में खड़ा करना आवश्यक है जिन्होंने इस या उस बहाने महंगाई के खिलाफ लाए गए कटौती प्रस्तावों से किनारा किया और केंद्र सरकार को राहत प्रदान की। इनमें से जिन दलों ने महंगाई के विरोध में भारत बंद में भाग लिया उन्होंने तो एक तरह से जनता के साथ धोखा किया, क्योंकि बंद के दौरान आम आदमी को ही सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ी।


पिछले दिनों जब महंगाई का मामला सतह पर आ रहा था तब दो ऐसे प्रकरण सामने आए जिनसे जनता का ध्यान भंग हुआ। पहला मामला आईपीएल में कथित घोटाले का था और दूसरा कुछ नेताओं की फोन टैपिंग का। इन दोनों मामलों ने पक्ष-विपक्ष के संसद सदस्यों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा। क्या यह महज एक दुर्योग अथवा संयोग था कि जब महंगाई को लेकर सरकार की संसद में किरकिरी होने जा रही थी तब एक नहीं दो ऐसे मामले आए जो सुर्खियां बन गए? कहीं इन मामलों के उछलने-उछालने के पीछे कोई चाल तो नहीं थी? यह भी आश्चर्यजनक है कि जब आईपीएल में कथित अनियमितता को लेकर केंद्रीय मंत्री शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल पर उंगलियां उठने लगीं तो खुद केंद्र सरकार ही उनके बचाव में उतर आई, जबकि वह आईपीएल आयुक्त ललित मोदी के पीछे हाथ धोकर पड़ी थी। अब तो ऐसा लगता है कि किन्हीं निहित स्वाथरें के कारण ललित मोदी को खासतौर पर निशाना बनाया गया। आईपीएल मामले को इस कदर उछालने के उपरात अब इस बात का इतजार करना पड़ रहा है कि केंद्रीय जाच एजेंसियां ललित मोदी और आईपीएल की कुछ फ्रेंचाइजी टीमों के खिलाफ कोई सबूत जुटा भी पाती है या नहीं?


यदि भाजपा और वामदलों को छोड़ दिया जाए तो अन्य राजनीतिक दलों के बारे में यह कहना कठिन है कि उन्हें महंगाई से त्रस्त आम जनता की परेशानी से कोई लेना-देना है। पिछले पखवाड़े संसद में और संसद के बाहर जो कुछ हुआ वह भारतीय राजनीति की गरिमा गिराने वाला है। ऐसा लगता है कि राजनीति में ऐसे लोगों की संख्या कहीं अधिक बढ़ गई है जिनका उद्देश्य जनसेवा कदापि नहीं है। सबसे निराशाजनक रवैया सत्तापक्ष के नेताओं का है। वे जिस आम जनता के हितों की रक्षा के नाम पर शासन कर रहे हैं उसे ही सबसे अधिक कष्ट देने में लगे हुए हैं।


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