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खतरे में सरकार की साख

Jagran Juggernaut
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अपनी दूसरी पारी में महंगाई के मोर्चे पर बुरी तरह नाकाम संप्रग सरकार के खिलाफ विपक्ष जिस तरह एकजुट हुआ है वह उसके लिए चिंता का कारण बनना चाहिए। वामदल समेत 14 विपक्षी दल वित्त विधेयक पर जो कटौती प्रस्ताव लाने जा रहे हैं उसका समर्थन करने की घोषणा भाजपा ने भी कर दी है। इन स्थितियों में यह कटौती प्रस्ताव संप्रग सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है। इसलिए और भी, क्योंकि पिछले दिनों राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने की कोशिश में संप्रग सरकार अपने दो सहयोगी दलों के समर्थन से हाथ धो बैठी। एक ओर इस विधेयक के रूप-स्वरूप से सपा और राजद रूठ गए और दूसरी ओर सरकार विधेयक को लोकसभा में लाने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकी। चूंकि संप्रग सरकार बसपा के समर्थन का भरोसा नहीं कर सकती और फिलहाल वह इस पर चुप्पी भी साधे है कि कटौती प्रस्ताव का समर्थन करेगी या नहीं इसलिए सरकार के पास सिर्फ 274 सांसदों का ही समर्थन बचता है, जो बहुमत से सिर्फ दो ज्यादा हैं। भले ही विपक्षी दल सरकार गिराने की न सोच रहे हों, लेकिन बहुमत का यह समीकरण नाजुक स्थिति की ओर संकेत करता है। यह ठीक है कि केंद्र सरकार के राजनीतिक प्रबंधक बसपा पर डोरे डालने में लगे हुऐ हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता के बाद दोनों दलों के तनावपूर्ण रिश्ते देखते हुए इसमें संदेह है कि बसपा आसानी से उसके पक्ष में आने को तैयार होगी। चूंकि मामला महंगाई का है और इस मुद्दे पर बसपा केंद्र सरकार को घेरती रही है इसलिए वह ऐसा संकेत देने के लिए शायद ही तैयार हो कि महंगाई पर केंद्र का साथ दे सकती है।

विपक्ष ने महंगाई के सवाल पर केंद्र सरकार की घेरेबंदी एक ऐसे समय की है जब वह इंडियन प्रीमियर लीग को लेकर छिड़े विवाद में रक्षात्मक मुद्रा अपनाने को विवश है। इस विवाद में पहले शशि थरूर को त्यागपत्र देना पड़ा और अब सहयोगी दल राकांपा के दो वरिष्ठ नेता शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल भी आईपीएल के भंवर में फंसते नजर आ रहे हैं। शशि थरूर के इस्तीफे के बाद केंद्र सरकार ने आईपीएल आयुक्त ललित मोदी के खिलाफ जो तीखे तेवर अपनाए उनसे अभीष्ट की पूर्ति होने के बजाय संकट गहराता हुआ दिख रहा है। अब यह साफ है कि शशि थरूर और ललित मोदी के बीच विवाद छिड़ने के पहले केंद्र सरकार ने न तो आईपीएल और बीसीसीआई के कामकाज पर निगाह डालना आवश्यक समझा और न ही आईपीएल की फ्रेंचाइजी टीमों में पैसा लगाने वाले लोगों के आय-व्यय का विवरण जानने में दिलचस्पी दिखाई। पिछले कुछ दिनों में आईपीएल की फ्रेंचाइजी टीमों के मालिकों के यहां आयकर विभाग की ओर से जैसे छापे मारे जा रहे और प्रवर्तन निदेशालय एवं अन्य जांच एजेंसियों को जिस तरह सक्रिय कर दिया गया है उससे तो यही लगता है कि केंद्र सरकार मंहगाई के मुद्दे पर विपक्ष द्वारा लाए जा रहे कटौती प्रस्ताव से मीडिया और देश का ध्यान बंटाना चाह रही है। यह सही है कि देश का एक बड़ा वर्ग मीडिया में छाए आईपीएल विवाद पर ध्यान केंद्रित किए हुए है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उसे क्रिकेट के खेल से ही अधिक मतलब है, न कि इससे कि आईपीएल कैसे काम करती है और उसकी फ्रेंचाइजी टीमों ने कितना पैसा लगाया और वहा कहां से आया?

वित्त विधेयक पर कटौती प्रस्ताव लाने की तैयारियों के साथ-साथ विपक्ष आईपीएल मसले पर भी सरकार के खिलाफ एकजुट हो रहा है। जिस तरह सरकार के लिए कटौती प्रस्ताव से पार पाना आसान नहीं उसी तरह आईपीएल मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग ठुकराना भी सहज नहीं। यदि संप्रग सरकार खुद को बचाने के लिए सहयोगी दल राकांपा से मोलभाव करती है तो यह तय है कि वह आईपीएल और बीसीसीआई के कामकाज में सुधार लाने में सफल नहीं होने वाली। यहां यह ध्यान रहे कि आईपीएल की कथित गड़बड़ियों के लिए बीसीसीआई अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यह समय ही बताएगा कि केंद्र सरकार इन दोनों मुसीबतों से कैसे निपटती है, लेकिन जहां तक महंगाई का सवाल है, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आम जनता इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि केंद्र सरकार आवश्यक वस्तुओं पर लगाम लगाने में नाकाम है। शायद यही कारण रहा कि महंगाई के खिलाफ दिल्ली में आयोजित भाजपा की रैली में अच्छी-खासी भीड़ जुटी। 27 अप्रैल को गैर भाजपा विपक्षी दल भी महंगाई के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल करने जा रहे हैं। इसी दिन कटौती प्रस्ताव आना है। यह सवाल उठाया जा सकता है कि महंगाई के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करने अथवा वित्त विधेयक पर कटौती प्रस्ताव लाने से बढ़ते दामों पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि केंद्र सरकार मूल्य वृद्धि से बेपरवाह दिखे। शायद महंगाई पर केंद्र सरकार के इसी रवैये के कारण ही विपक्ष उसके खिलाफ एकजुट हुआ है। यह सहज ही समझा जा सकता है कि कटौती प्रस्ताव लाने का मुख्य उद्देश्य सरकार को असहज करना अधिक है।

यह निराशाजनक है कि महंगाई का मुकाबला करने के मामले में न तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार गंभीर दिख रही है और न ही उसके विरोधी दल। यह एक तथ्य है कि यदि केंद्र सरकार महंगाई रोकने में नाकाम है तो गैर कांग्रेस शासन वाली राज्य सरकारें भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। उल्टे वे वैट एवं अन्य करों की दरें बढ़ाने में लगी हुई हैं। केंद्र के तमाम अनुरोध के बावजूद जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ भी राज्यों ने कोई ठोस अभियान नहीं छेड़ा है। विडंबना यह है कि इस मामले में कांग्रेस शासित राज्य भी केंद्र सरकार की अनसुनी कर रहे हैं। कोई इस पर भी गौर नहीं कर रहा कि कहीं ऑनलाइन वायदा कारोबार में हो रहे अग्रिम सौदे तो महंगाई नहीं बढ़ा रहे? ध्यान रहे कि जबसे देश की मंडियों में ऑनलाइन वायदा कारोबार शुरू हुआ है तभी से महंगाई ने विकराल रूप धारण किया है। वायदा कारोबार की इस पद्धति में उपयुक्त नियम-कानूनों का अभाव है। इस कारण आढ़तियों पर कहीं कोई नियंत्रण रहा। आढ़ती माल न होते हुए भी बड़े-बड़े सौदे कर रहे है जिससे आवश्यक वस्तुओं के मूल्य कम होने का नाम नहीं ले रहे।

होना तो यह चाहिए था कि आम आदमी को त्रस्त करने वाली महंगाई से पक्ष-विपक्ष मिलकर लड़ता। दुर्भाग्यसे इसके बजाय दोनों पक्ष अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। कटौती प्रस्ताव और क्रिकेट को लेकर मचे घमासान का चाहे जो हश्र हो, यह साफ नजर आ रहा है कि केंद्र सरकार को अपनी प्रतिष्ठा बचाना मुश्किल हो रहा है। इसके लिए एक हद तक वही जिम्मेदार है, क्योंकि वह न तो राजनीतिक प्रबंधन दिखा सकी और न ही आर्थिक प्रबंधन।


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